विषय : हिंदी
कक्षा : 8
पाठ्यपुस्तक : मल्हार (NCERT)
पाठ- 2 दो गौरैया
NCERT Class 8 Malhaar ( Hindi Book ) 2025 edition
घर में हम तीन ही व्यक्ति रहते हैं- माँ, पिताजी और मैं। पर पिताजी कहते हैं कि यह घर सराय बना हुआ है। हम तो जैसे यहाँ मेहमान हैं, घर के मालिक तो कोई दूसरे ही हैं।
आँगन में आम का पेड़ है। तरह-तरह के पक्षी उस पर डेरा डाले रहते हैं। जो भी पक्षी पहाड़ियों-घाटियों पर से उड़ता हुआ दिल्ली पहुँचता है, पिताजी कहते हैं वही सीधा हमारे घर पहुँच जाता है, जैसे हमारे घर का पता लिखवाकर लाया हो। यहाँ कभी तोते पहुँच जाते हैं, तो कभी कौवे और कभी तरह-तरह की गौरैयाँ। वह शोर मचता है कि कानों के पर्दे फट जाएँ, पर लोग कहते हैं कि पक्षी गा रहे हैं!
घर के अंदर भी यही हाल है। बीसियों तो चूहे बसते हैं। रात-भर एक कमरे से दूसरे कमरे में भागते फिरते हैं। वह धमा-चौकड़ी मचती है कि हम लोग ठीक तरह से सो भी नहीं पाते। बर्तन गिरते हैं, डिब्बे खुलते हैं, प्याले टूटते हैं। एक चूहा अँगीठी के पीछे बैठना पसंद करता है, शायद बूढ़ा है उसे सर्दी बहुत लगती है। एक दूसरा है जिसे बाथरूम की टंकी पर चढ़कर बैठना पसंद है। उसे शायद गरमी बहुत लगती है। बिल्ली हमारे घर में रहती तो नहीं मगर घर उसे भी पसंद है और वह कभी-कभी झाँक जाती है।
मन आया तो अंदर
आकर दूध पी गई, न मन आया तो बाहर से ही 'फिर आऊँगी' कहकर चली जाती है। शाम पड़ते ही दो-तीन चमगादड़ कमरों के आर-पार पर फैलाए कसरत करने लगते हैं। घर में कबूतर भी हैं। दिन-भर 'गुटर गू गुटर गूँ' का संगीत सुनाई देता रहता है। इतने पर ही बस नहीं, घर में छिपकलियाँ भी हैं और बरें भी हैं और चींटियों की तो जैसे फौज ही छावनी डाले हुए है।
अब एक दिन दो गौरैया सीधी अंदर घुस आईं और बिना पूछे उड़-उड़कर मकान देखने लगीं। पिताजी कहने लगे कि मकान का निरीक्षण कर रही हैं कि उनके रहने योग्य है या नहीं। कभी वे किसी रोशनदान पर जा बैठतीं, तो कभी खिड़की पर। फिर जैसे आई थीं वैसे ही उड़ भी गईं। पर दो दिन बाद हमने क्या देखा कि बैठक की छत में लगे पंखे के गोले में उन्होंने अपना बिछावन बिछा लिया है और सामान भी ले आईं हैं और मजे से दोनों बैठी गाना गा रही हैं। जाहिर है, उन्हें घर पसंद आ गया था।
माँ और पिताजी दोनों सोफे पर बैठे उनकी ओर देखे जा रहे थे। थोड़ी देर बाद माँ सिर हिलाकर बोलीं, "अब तो ये नहीं उड़ेंगी। पहले इन्हें उड़ा देते, तो उड़ जातीं। अब तो इन्होंने यहाँ घोंसला बना लिया है।"
इस पर पिताजी को गुस्सा आ गया। वह उठ खड़े हुए और बोले, "देखता हूँ ये कैसे यहाँ रहती हैं। गौरैयाँ मेरे आगे क्या चीज हैं। मैं अभी निकाल बाहर करता हूँ।"
"छोड़ो जी, चूहों को तो निकाल नहीं पाए, अब चिड़ियों को निकालेंगे!" माँ ने व्यंग्य से कहा।
माँ कोई बात व्यंग्य में कहें, तो पिताजी उबल पड़ते हैं, वह समझते हैं कि माँ उनका मजाक उड़ा रही हैं। वह फौरन उठ खड़े हुए और पंखे के नीचे जाकर जोर से ताली बजाई और मुँह से 'श... शू' कहा, बाँहें झुलाई, फिर खड़े-खड़े कूदने लगे, कभी बाँहें झुलाते, कभी 'श... शू' करते।
गौरैयों ने घोंसले में से सिर निकालकर नीचे की ओर झाँककर देखा और दोनों एक साथ 'चीं-चीं' करने लगीं। और माँ खिलखिलाकर हँसने लगीं।
पिताजी को गुस्सा आ गया, "इसमें हँसने की क्या बात है?"
माँ को ऐसे मौकों पर हमेशा मजाक सूझता है। हँसकर बोली, "चिड़ियाँ एक-दूसरे से पूछ रही हैं कि यह आदमी कौन है और नाच क्यों रहा है?"
लगे। तब पिताजी को और भी ज्यादा गुस्सा आ गया और वह पहले से भी ज्यादा ऊँचा कूदने
गौरैयाँ घोंसले में से निकलकर दूसरे पंखे के डैने पर जा बैठीं। उन्हें पिताजी का नाचना जैसे बहुत पसंद आ रहा था। माँ फिर हँसने लगीं, "ये निकलेंगी नहीं, जी। अब इन्होंने अंडे दे दिए होंगे।"
"निकलेंगी कैसे नहीं?" पिताजी बोले और बाहर से लाठी उठा लाए। इसी बीच गौरैयाँ फिर घोंसले में जा बैठी थीं। उन्होंने लाठी ऊँची उठाकर पंखे के गोले को ठकोरा। 'चीं-चीं' करती गौरैयाँ उड़कर पर्दे के डंडे पर जा बैठीं।
कहा। "इतनी तकलीफ करने की क्या जरूरत थी। पंखा चला देते, तो ये उड़ जाता।" मा न हसकर
पिताजी लाठी उठाए पर्दे के डंडे की ओर लपके। एक गौरैया उड़कर किचन के दरवाजे पर जा बैठी। दूसरी सीढ़ियों वाले दरवाजे पर।
माँ फिर हँस दी। "तुम तो बड़े समझदार हो जी, सभी दरवाजे खुले हैं और तुम गौरैयों को बाहर निकाल रहे हो। एक दरवाजा खुला छोड़ो, बाकी दरवाजे बंद कर दो। तभी ये निकलेंगी।"
दे!" अब पिताजी ने मुझे झिड़ककर कहा, "तू खड़ा क्या देख रहा है? जा, दोनों दरवाजे बंद कर
मैंने भागकर दोनों दरवाजे बंद कर दिए केवल किचन वाला दरवाजा खुला रहा ।
पिताजी ने फिर लाठी उठाई और गौरैयों पर हमला बोल दिया। एक बार तो झूलती लाठी माँ के सिर पर लगते-लगते बची। चीं-चीं करती चिड़ियाँ कभी एक जगह तो कभी दूसरी जगह जा बैठतीं। आखिर दोनों किचन की ओर खुलने वाले दरवाजे में से बाहर निकल गईं। माँ तालियाँ बजाने लगीं। पिताजी ने लाठी दीवार के साथ टिकाकर रख दी और छाती फैलाए कुर्सी पर आ बैठे।
"आज दरवाजे बंद रखो" उन्होंने हुक्म दिया। "एक दिन अंदर नहीं घुस पाएँगी, तो घर छोड़ देंगी।"
तभी पंखे के ऊपर से चीं-चीं की आवाज सुनाई पड़ी। और माँ खिलखिलाकर हँस दी। मैंने सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा, दोनों गौरैयाँ फिर से अपने घोंसले में मौजूद थीं।
"दरवाजे के नीचे से आ गई हैं," माँ बोलीं।
मैंने दरवाजे के नीचे देखा। सचमुच दरवाजों के नीचे थोड़ी-थोड़ी जगह खाली थी।
पिताजी को फिर गुस्सा आ गया। माँ मदद तो करती नहीं थीं, बैठी हँसे जा रही थीं।
अब तो पिताजी गौरैयों पर पिल पड़े। उन्होंने दरवाजों के नीचे कपड़े ठूंस दिए ताकि कहीं कोई छेद बचा नहीं रह जाए। और फिर लाठी झुलाते हुए उन पर टूट पड़े। चिड़ियाँ चीं-चीं करती फिर बाहर निकल गईं। पर थोड़ी ही देर बाद वे फिर कमरे में मौजूद थीं। अबकी बार वे रोशनदान में से आ गई थीं जिसका एक शीशा टूटा हुआ था।
"देखो जी, चिड़ियों को मत निकालो," माँ ने अबकी बार गंभीरता से कहा, अब तो इन्होंने अंडे भी दे दिए होंगे। अब ये यहाँ से नहीं जाएँगी।
"क्या मतलब? मैं कालीन बरबाद करवा लूँ?" पिताजी बोले और कुर्सी पर चढ़कर रोशनदान में कपड़ा ठूंस दिया और फिर लाठी झुलाकर एक बार फिर चिड़ियों को खदेड़ दिया। दोनों पिछले आँगन की दीवार पर जा बैठीं।
इतने में रात पड़ गई। हम खाना खाकर ऊपर जाकर सो गए। जाने से पहले मैंने आँगन में झाँककर देखा, चिड़ियाँ वहाँ पर नहीं थीं। मैंने समझ लिया कि उन्हें अक्ल आ गई होगी। अपनी हार मानकर किसी दूसरी जगह चली गई होंगी।
दूसरे दिन इतवार था। जब हम लोग नीचे उतरकर आए तो वे फिर से मौजूद थीं और मजे से बैठी मल्हार गा रही थीं। पिताजी ने फिर लाठी उठा ली। उस दिन उन्हें गौरैयों को बाहर निकालने में बहुत देर नहीं लगी।
अब तो रोज यही कुछ होने लगा। दिन में तो वे बाहर निकाल दी जातीं पर रात के वक्त जब हम सो रहे होते, तो न जाने किस रास्ते से वे अंदर घुस आतीं।
पिताजी परेशान हो उठे। आखिर कोई कहाँ तक लाठी झूला सकता है? पिताजी बार-बार कहें, "मैं हार मानने वाला आदमी नहीं हूँ।" पर आखिर वह भी तंग आ गए थे। आखिर जब उनकी सहनशीलता चुक गई तो वह कहने लगे कि वह गौरैयों का घोंसला नोचकर निकाल देंगे। और वह फौरन ही बाहर से एक स्टूल उठा लाए।
घोंसला तोड़ना कठिन काम नहीं था। उन्होंने पंखे के नीचे फर्श पर स्टूल रखा और लाठी लेकर स्टूल पर चढ़ गए। "किसी को सचमुच बाहर निकालना हो, तो उसका घर तोड़ देना चाहिए,” उन्होंने गुस्से से कहा।
घोंसले में से अनेक तिनके बाहर की ओर लटक रहे थे, गौरैयों ने सजावट के लिए मानो झालर टाँग रखी हो। पिताजी ने लाठी का सिरा सूखी घास के तिनकों पर जमाया और दाईं ओर को खींचा। दो तिनके घोंसले में से अलग हो गए और फरफराते हुए नीचे उतरने लगे।
"चलो, दो तिनके तो निकल गए" माँ हँसकर बोलीं, "अब बाकी दो हजार भी निकल जाएँगे !"
तभी मैंने बाहर आँगन की ओर देखा और मुझे दोनों गौरैयाँ नजर आईं। दोनों चुपचाप दीवार पर बैठी थीं। इस बीच दोनों कुछ-कुछ दुबला गई थीं, कुछ-कुछ काली पड़ गई थीं। अब वे चहक भी नहीं रही थीं।
अब पिताजी लाठी का सिरा घास के तिनकों के ऊपर रखकर वहीं रखे-रखे घुमाने लगे। इससे घोंसले के लंबे-लंबे तिनके लाठी के सिरे के साथ लिपटने लगे। वे लिपटते गए, लिपटते गए और घोंसला लाठी के इर्द-गिर्द खिंचता चला आने लगा। फिर वह खींच खींचकर लाठी के सिरे के इर्द-गिर्द लपेटा जाने लगा। सूखी घास और रुई के फाहे और धागे और थिगलियाँ लाठी के सिरे पर लिपटने लगीं। तभी सहसा जोर की आवाज आई, "चीं-चीं, चीं-चीं!!!"
पिताजी के हाथ ठिठक गए। यह क्या? क्या गौरैयाँ लौट आई हैं? मैंने झट से बाहर की ओर देखा। नहीं, दोनों गौरैयाँ बाहर दीवार पर गुमसुम बैठी थीं।
"चीं-चीं. चीं-चीं!" फिर आवाज आई। मैंने ऊपर देखा। पंखे के गोले के ऊपर से नन्हीं-नन्हीं गौरैयाँ सिर निकाले नीचे की ओर देख रही थीं और चीं-चीं किए जा रही थीं। अभी भी पिताजी के हाथ में लाठी थी और उस पर लिपटा घोंसले का बहुत-सा हिस्सा था। नन्हीं-नन्हीं दो गौरैयाँ। वे अभी भी झाँके जा रही थीं और चीं-चीं करके मानो अपना परिचय दे रही थीं, हम आ गई हैं। हमारे माँ-बाप कहाँ हैं?
मैं अवाक् उनकी ओर देखता रहा। फिर मैंने देखा, पिताजी स्टूल पर से नीचे उतर आए हैं। और घोंसले के तिनकों में से लाठी निकालकर उन्होंने लाठी को एक ओर रख दिया है और चुपचाप कुर्सी पर आकर बैठ गए हैं। इस बीच माँ कुर्सी पर से उठीं और सभी दरवाजे खोल दिए। नन्हीं चिड़ियाँ अभी भी हाँफ-हाँफकर चिल्लाए जा रही थीं और अपने माँ-बाप को बुला रही थीं।
उनके माँ-बाप झट-से उड़कर अंदर आ गए और चीं-चीं करते उनसे जा मिले और उनकी नन्हीं-नन्हीं चोंचों में चुग्गा डालने लगे। माँ-पिताजी और मैं उनकी ओर देखते रह गए। कमरे में फिर से शोर होने लगा था, पर अबकी बार पिताजी उनकी ओर देख-देखकर केवल मुसकराते रहे।
- भीष्म साहनी
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